संक्षेपण किसे कहते है? उदाहरण के साथ समझे!

संक्षेपण किसे कहते है ? Precis writing in Hindi

संक्षेपण एक ऐसी शैली है जिससे कही गई तथ्यात्मक बातों  मे से अनावश्यक संदभो  को निकालकर मूल्य बातों तथा मूल तत्वों को प्रकट किया जाता है। संक्षेपन के माध्यम से जहां एक ओर समय की बचत होती है वहीं दूसरी ओर श्रम को भी कम किया  जा सकता है। यह शैली हमारी सूझम  निरीक्षण शक्ति का परिचायक सिद्ध हुई होती है।  इसके माध्यम से मूल भाव के अतिरिक्त अनावश्यक संदभो को पृथक रखा जा सकता है।

संक्षेपन में मूल उपयोगी  अंश को महत्व दिया जाता है। संक्षिप्तीकरण से बातों को जल्दी से समझने मे आसानी होती है।  एक आदर्श सफल संक्षेपन को अपने आप में एक मौलिक रचना स्वरूप माना गया है। इसमें मूल पाठ वक्तव्य भाव को एक तिहाई शब्दों में प्रस्तुत करने की परंपरा सी रही है उत्कृष्ट संक्षेपन पूर्णता  लिए होते हैं संक्षेपन करते समय अनावश्यक बातों को छोड़ देना होता है।

संक्षेपन शब्दों से स्पष्ट है कि इसमें संक्षिपिता  का गुण आवश्यक रूप से होना चाहिए। ऐसा करते समय हमारा ध्यान आधारभूत भाव विचारों पर ही केंद्रित होना चाहिए संक्षिप्तीकरण में संक्षेपनकर्ता का  मूल पाठ भाव की पूर्ण रचना करता है पर ऐसा करते समय उसे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मूल पाठ भाव विचार पूर्ण रूप से स्पष्ट होनी चाहिए स्पष्टता संक्षेपन के महत्व को और भी अधिक बढ़ा देती है।

संक्षेपण करते समय पहले पूरे पाठ को कम से कम 3 बार गंभीरता से पढ़ना चाहिए और उसमें मूल केंद्र बिंदु को समझने की कोशिश करनी चाहिए। पढ़ते समय ऐसे शब्दों वाक्यांशों वाक्यों को रेखांकित कर देना चाहिए जो केंद्र भाव बिंदु से संबंधित है। संक्षेपन की कला गागर में सागर भर देने की कला है अर्थात कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा भाव बोध कराया जा सके की कोशिश होनी चाहिए । 

संक्षेपन करता को गहनता से विचार कर एक उचित शीर्षक देना चाहिए। इसमें किसी भी प्रकार की टिप्पणी या स्पष्टीकरण की कतई आवश्यकता नहीं होती है। ऐसा करते समय और स्पष्टता की ओर पूरा ध्यान देना चाहिए पर किसी भी प्रकार का अलंकारिक शैली का प्रयोग नहीं करना चाहिए। चलिय कुछ उदाहरण से समझते हैं-

संक्षेपण के उदाहरण 1 –

1-जानवर के शरीर की तुलना करने पर मनुष्य का शरीर प्रायः कोमल और सुकुमार दिखाई पड़ता है पर वास्तव में यह विषम- काली रूप से सशक्त है। इसकी यही कोमलता और ढीलापन उसके लिए लाभप्रद है, जो मनुष्य को जहां-तहां चलने फिरने और अपनी रक्षा करने की सुविधा देता है। मनुष्य अपने आकार के सचिव प्राणियों की अपेक्षा गतिशीलता से सबसे अधिक कुशल है, क्योंकि वह अपने अंगों द्वारा भाति भाति से कार्य कर सकता है।

मनुष्य के खेल से यह स्पष्ट होता है कि वह अपने शरीर पर किस प्रकार का नियंत्रण रख सकता है। धरती का कोई भी प्राणी उसकी तरह सावधानी के साथ तैर नहीं सकता, किसी में उसके जैसा वैविध्य पूर्ण लालायित नहीं है, बहुत कम प्राणी उसी तरह दीर्घ जीवी है, किसी अन्य में रोगों का प्रतिरोध करने की उसकी जैसी प्राकृतिक शक्ति नहीं है।

इस प्रकार मनुष्य को चुनौती देने वाले क्षती और मृत्यु के खतरों के विरुद्ध इसमें संघर्ष करने में वह बड़ी अनुकूल स्थिति होती है।जब तक उसका स्वास्थ्य अच्छा है और उसे भोजन मिल जाता है, तब तक उसे मार डालना मुश्किल है। मनुष्य प्राकृतिक रूप से सशक्त है,एसलीय इसमें संघर्ष करने की क्षमता जायदा होती है ।

संक्षेपन- शीर्षक -मनुष्य का शरीर –

संक्षेपण- जानवरों की अपेक्षा मनुष्य कोमल और सुकुमार है जो उसे चलने फिरने एवं खुद की रक्षा के लिए यह अनुकूल हैं। मनुष्य अपनी गतिशीलता के कारण अपने अंगों से अनेक कार्य कर सकता है। अपने शरीर पर नियंत्रण रखने वाले मनुष्य के समान संसार का कोई भी प्राणी इतनी सावधानी से नहीं तैर सकता। अनेक प्राणियों की अपेक्षा में मनुष्य मे रोगों की प्रतिरोध करने की प्राकृतिक क्षमता होती है अच्छे स्वास्थ्य और भरपेट भोजन मिलने तक उसे मारना मुश्किल है।

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संक्षेपण के उदाहरण 2 –

 भारत गांव का देश है। 80% जनता कृषि पर निर्भर है। अधिकांश किसान गरीब है। पहले जब किसानों किसी किसी अवसर पर रुपए की आवश्यकता पड़ती थी, तब वह गांव के साहूकारों से कर्ज लेते थे और व्याज के रूप में मूल से अधिक रुपए देने पर भी वे ऋण भार से मुक्त नहीं हो पाते थे। गांव में किसानों को सबसे अधिक कष्ट ऋण से ही होता था। जब देश के नेताओं का ध्यान भी उनकी आर्थिक कठिनाइयों पर गया उन्होंने सहकारी समिति खोलने की सलाह दी। और उन्हे वहा से ऋण मिलने लगा । साथ ही साथ गांव के छोटे-छोटे किसान अपनी पूंजी का कुछ अंश एक सरकारी कोष में जमा करें तो आवश्यकता के समय उसमें से कम ब्याज पर ऋण ले सकते हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में धीरे-धीरे इस प्रकार की समितियां खुलने लगी है यह वास्तव में ऋण समिति है क्योंकि उनके द्वारा ग्रामीण जनता के किसी उद्योग धंधे से लाभ नहीं उठाती है। फिर भी इन ऋण समितियों से एक प्रत्यक्ष लाभ हुआ है कि ग्रामीण ऋण के लिए महाजनों के पंजे में अब नहीं पड़ते हैं। अब लोगों का ध्यान अन्य प्रकार की समितियों खोलने की ओर आकर्षित हो रहा है। देहातों में यह समितियां और किसानों को अच्छे बीज रसायनिक खाद आदि भी देते हैं जिससे पैदावार में कुछ वृद्धि अवश्य हो रही है।

संक्षेपन- शीर्षक -ऋण समितियों से लाभ

संक्षेपण- भारत देश की 80% जनता कृषि पर निर्भर है। गरीब किसान पहले साहूकारों से भारी मात्रा में ब्याज पर ऋण लेते थे। मूल में अधिक ब्याज चुकाने पर भी किसान कभी भी दिन ऋण मुक्त नहीं हो पाते थे। आर्थिक कठिनाइयों से जूझने वाले किसान को सस्ते पर देने के लिए सहकारी समितियां गठित की गई। समितियों का प्रत्यक्ष लाभ हुआ कि किसानों साहूकारों के ऋण के चंगुल से निकल गए ।

ग्रामीण क्षेत्रों में भी ऐसी कई सहकारी समितियां खोली जा रही है जो किसानों के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हो रही है वहां से उन्हें उत्तम बीज रसायनिक खाद आदि भी उपलब्ध करवाई जाती है जिससे उनकी पैदावार में वृद्धि होती है तथा आर्थिक मजबूती भी मिलती है।

संक्षेपण के उदाहरण 3-

प्रकृति के विराट जगत को जब हम देखते हैं तो दो चीज बहुत साफ दिखाई देती है, है कि यह प्रतियोगिता का मैदान नहीं है जिससे मनुष्य ने आज अपनी सभ्यता का बीज मंत्र बना लिया है। प्रकृति के विषय में यह नहीं कह सकते कि धरती अधिक महत्वपूर्ण है या कि पानी या की आग, वनस्पति या फिर पशु या फिर मनुष्य। प्रकृति के यहां सभी प्राणियों की एक अनोखी लयात्मकता है,जो हर कदम पर एक दूसरे का पूरक दिखाई पड़ता है और यह धरती की सृजनात्मक के लिए जरूरी है,जिसमे पेड़ पौधे फ वर्षा के लिए जरूरी है।

मनुष्य के अहंकार ने प्रकुर्ती के एस आत्मा पर प्रहार किया। जब प्रकृति को वश में करने के लिए मनुष्य ने इसका दोहन करने चल पड़ा, तो वह अपने ही विनाश की कगार पर पहुच गया । अब एक ओर मनुष्य अपने चरम अविष्कारों से आतंकित है तो दूसरी और पृथ्वी पर उसने इन तमाम वर्षों में जो भी अत्याचार किए हैं उनका प्रतिफल मनुष्य को समाप्त करने के लिए ही बढ़कर आगे आ रहा है।

संक्षेपन- शीर्षक – प्रकृति का दोहन

 संक्षेपण- प्रकृति के विराट जगन में वह प्रतियोगिता त्मक उदवंत नहीं है कोमा जिसे मनुष्य ने सभ्यता का बीज मंत्र मान लिया है। प्रकृति के प्रत्येक तत्व में एक दूसरे के काट की जगह एक अनोखी लयात्मक का है। मनुष्य के अहंकार ने विज्ञान के सहारे इस यात्रा पर प्रहार किया है। प्राकृतिक तत्वों की अंधाधुंध दोहन कर मनुष्य अपने ही विनाश के कगार पर पहुंचा है। मनुष्य द्वारा पृथ्वी पर वर्षों से किए जा रहे अत्याचारी अत्याचारों के परिणाम स्वरुप मनुष्य स्वयं ही समाप्त होने की और बढ़ता जा रहा है।